हमारे
ऋषियों ने जीवन के आदर्शों तथा समाज की मर्यादाओं को संक्षिप्त कर के दो सूत्रों
में बाँध दिया है, जिन्हें ‘यम’ और ‘नियम’ कहते हैं। पूर्व में बालक को ‘यम-नियम’ का अभ्यास, घर के वातावरण में माता-पिता के संरक्षण में प्रत्यक्ष क्रिया से सिखाये
जाते थे जो बालक के मानवी विकास की दिशा में प्रथम पायदान था। उन्हीं की आधारशिला
पर जीवन का निर्माण आरम्भ होता था। इसकी जानकारी निम्नानुसार हैं:-
यम – यम आदर्शवाद का सामाजिक सिद्धान्त हैं।
यदि इन का पालन दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया में किया जाये तो चाहे हम किसी भी
स्थान पर रहे और किसी भी धर्म के अनुयायी हों, हमारे
जीवन में तथा समाज में अधिकतर समस्यायें पैदा ही नहीं होंगी, न ही जीवन में कोई तनाव या हताशा उपजेगी। यम, समाज कल्याण के लिये मानवीय
मूल्यों के निम्नलिखित पाँच सिद्धान्त हैं –
अहिंसा – अहिंसा से तात्पर्य
है कि किसी भी जीव को मन से, वचन से तथा कर्म से
दुःख ना दिया जाय तथा उस की इच्छा के विरुद्ध उस से कुछ भी ना करवाया जाये। उस के
ऊपर कोई प्रतिबन्ध न लगाया जाये। अहिंसा का सिद्धान्त ही जियो और जीने दो का मूल
मन्त्र है किन्तु यदि अहिंसा की भावना कर्तव्य पालन में बाधा डाले तो वही अहिंसा कायरता
बन जाती है जिस का त्याग करना चाहिये।
सत्य – सत्य का तात्पर्य है कि हम अपनी सभी क्रियाओं में, लेन-देन में, बोल-चाल में सत्यता
पर अडिग रहें तथा कभी भी मन से, वचन से, कर्म से झूठ और छलावे का
आश्रय न लें किन्तु यह न भूलें कि कभी-कभी झूठ के बोझ तले दबाये गये सत्य को
बाहर निकाल कर मनवाने के लिये शक्ति की आवश्यकता भी पडती है।
अस्तेय – अस्तेय का तात्पर्य
है कि हम दूसरों के साधनो को हडपने की चेष्टा, इच्छा
या प्रयत्न कभी न करें और अपने निजि सुखों को निजि साधनों पर ही आधिरित रख कर
संतुष्ट रहैं। अपनी चादर के अनुसार ही पाँव फैलायें किन्तु इस का यह अर्थ भी नहीं
कि हम अपने साधनों को ही गँवा बैठें या परिश्रम से उन में वृद्धि ना करें।
ब्रह्मचर्य – ब्रह्मचर्य से तात्पर्य है कि हम अपनी सभी इन्द्रीयों पर नियन्त्रण रख कर
प्राकृतिक जीवन जियें। उन सभी विचारों, क्रियाओं
तथा वस्तुओं का प्रयोग जीवन में कभी ना करें जो अप्राकृतिक तथा निजि कर्तव्यों से विमुख होने के लिये प्रेरित
करने वाली हों। ब्रह्मचर्य का पालन आयु पर्यन्त करना होता है। एक पत्निधारी के साथ संयमित साहचर्य को ब्रह्मचर्य की श्रेणी में माना गया हैं|
अपरिग्रह – अपरिग्रह का
तात्पर्य है कि हम अपनी निजि आवश्यक्ताओं को भी नियन्त्रण में रखें तथा भौतिक
वस्तुओं से अधिक मोह ना करें। इच्छाओं को नियन्त्रण में रखें, अन्यथा पूरा जीवन वस्तुओं को चाहने, जुटाने
तथा संग्रह करने में ही व्यतीत हो जायेगा। जीवन जितना सादगी भरा होगा उतना ही
सुखदायक भी होगा।
देखने
में यह सिद्धांत बहुत साधारण से दिखते हैं किन्तु यदि विचार करें तो हमारे जीवन के
शत-प्रतिशत कष्ट और तनाव तभी आते हैं जब स्वार्थवश हम इन सिद्धान्तों का उल्लंघन
करते हैं या दूसरे लोग हमारे प्रति इन सिद्धान्तों का पालन नहीं करते। यदि सभी लोग
इन सिद्धान्तों को स्वेच्छा से अपना लें तो समस्त समाज सुखमय बन सकता है। माता
पिता स्वयं उदाहरण बन कर यदि अपनी संतान में इस प्रकार के संस्कारों का बीजारोपण
करें तो जीवन में हताशा, निराशा कभी नहीं आयेगी।
नियम – यमों का दैनिक जीवन शैली में पालन करना आवश्यक है जिसके लिये संकल्प तथा
अनुशासन ज़रूरी है। अनुशासन स्वेच्छित होना चाहिये। अतः निरन्तर अभ्यास के लिये नियम बनाये गये हैं जिन का पालन माता पिता तथा प्राथमिक गुरू के सानिध्य
में हो सके और नियम जीवन की दैनिक दिनचर्या का ही हिस्सा बन जायें। अनुशासित
मानवीय जीवन के लिये पाँच नियम इस प्रकार हैं
शौच – शौच का सम्बन्ध
स्वच्छता से है। मानव को अपना शरीर,
रहवास, कार्यशाला, पर्यावरण साफ रखने
चाहियें। इन के अतिरिक्त अपने विचार,
मन, वाणी तथा आचरण को भी स्वच्छ रखना चाहिये। पर्यावरण से विचार, विचारों से क्रियायें, तथा क्रियाओं से
प्रतिक्रियायें जन्म लेती हैं। स्वच्छता के बिना जीवन दूषित हो जाता है।
संतोष – संतोष से तात्पर्य
है कि मानव अपनी इच्छाओं तथा आकाँक्षाओं पर नियन्त्रण रखे। उनकी पूर्ति जहाँ तक
निजि सामर्थ्य से हो सके, उसी पर संतोष करे। इस का यह अर्थ कदापि नहीं कि हम कर्म
करना ही छोड़ दे। कर्म अवश्य करे परन्तु यदि वाँछित फल ना मिले तो हताश होने के
बजाय संतोष पूर्वक कर्म करते रहैं।
तप – तप से तात्पर्य है कि मानव अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये कठिन से कठिन
परिश्रम से न हिचकिचाये। जीवन में कठिनाईयाँ झेलने की क्षमता तप से ही आती है।
किसी क्रिया को बार बार करते रहना,
इन्द्रियों के ऊपर
नियन्त्रण करते हुये, कडा परिश्रम करते रहना ही, तप कहलाता है। भूख पर उपवास से, वाणी पर मौन ब्रत से, भावनाओं पर
ब्रह्मचर्य और शरीरिक विपदाओं पर योग साधना से ही, विजय पायी जाती है। तप स्वेच्छा
से ही किया जाता है। जो मानव अपने आप पर नियन्त्रण कर लेता है, वही सर्वत्र विजयी
होता है।
स्वाध्याय – स्वाध्याय से
तात्पर्य है कि बचपन से ही अपने विकास की ओर हम स्वयं प्रेरित हो तथा जिज्ञासु
बनें। ज्ञान प्राप्ति के लिये स्वयं यत्न करे। गुणी, शिक्षित
और सदाचारी लोगों का संग और उन का अनुसरण करें।
ईश्वरीय
प्राणिधान – ईश्वरीय प्राणिधान से तात्पर्य है कि मानव सर्वथा गर्वरहित रहे। अपने
कर्मों तथा उपलब्धियों को ईश्वरीय शक्ति के अधीन ही समझें।
भारतवासी
कानवेन्ट स्कूलों की चकाचौंध से बहुत प्रभावित रहते हैं लेकिन सोच कर देखें तो उन
स्कूलों में भी भारतीय यम-नियम ही ‘मोरल साईंस’ के नाम से सिखाये जाते हैं। अन्तर यह है कि वहाँ ब्रह्मचर्य पर विशोष महत्व नहीं दिया जाता और यही पाशचात्य जगत में
मानसिक तनाव का मुख्य कारण है। विध्यार्थी जीवन से ही जब ब्रह्मचर्य का खण्डन, ड्रग्स, नशीले पदार्थ, समलैंगिक्ता, लिविंग इन रिलेशनशिप्स, गर्भ निरोधक, अनैतिक गर्भपात, और हिंसा आदि जीवन
में बेतहाशा प्रवेश कर जाते हैं तो जीवन नकारात्मिक दिशा में चल पडता है। केवल निराश और हताशा जीवन के साथ
चल पडती हैं।
यम
तथा नियम किसी विशेष धर्म, जाति, या देश के लिये नहीं – अपितु समस्त मानव
कल्याण के लिये हैं। यदि उन का पालन किया जाये तो कोई विद्यार्थी हताश हो कर
आत्महत्या नहीं करेगा, ना ही कोई व्यस्क
जीवन में तनाव और मानसिक-हीनता का शिकार होगा। यम-नियम का पालन करने वाले के कदम
किसी भी परिस्थिति में नहीं डगमगायेंगे।
यम-नियम
के निरन्तर अभ्यास से निम्नलिखित व्यक्तिगत गुण अपने आप ही विकसित होने लगते हैं
जो सफल और सुखमय जीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं –
धृति – अपने लक्ष्य पर अडिग रहने की क्षमता।
दया – मानव में दूसरों के प्रति संवेदना तथा
दूसरों को भी जीने देने की भावना।
अर्जवा –सामाजिक सम्बन्धों में इमानदारी बर्तने का साहस।
मिताहार – स्वस्थ तथा सुखी जीवन का मूल-मंत्र।
हरि – अपने दोषों से सीख लेना निजि विकास की
प्रथम पायदान है।
दान – दूसरों के दुख तथा अपने सुखों को दूसरों
के साथ बाँटनें की भावना।
आस्तिक्य – जीवन में निराशा मिटा कर आत्मविशवास भरने
का गुण।
मति – तथ्यों, विचारों, कर्मों तथा निर्णयों का सूक्ष्म विशलेण करने का गुण।
ब्रत– ब्रत पालन और संकल्प को दृढता से क्रियान्वयन करने की क्षमता।
जप – तथ्यों के सूक्षम ज्ञान को अंगीकार रखने की
क्षमता।
धैर्य – प्रतिकूल प्रतिस्थितियों में कृतसंकल्प
रहने की क्षमता|
क्षमा – बदला लेने की प्रवित्ति तथा संकीर्णता से
छुटकारा पाने की क्षमता।
वर्तमान में इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता और न ही इन्हें महत्वपूर्ण माना जाता हैं| समाज में आये नैतिक पतन का प्रमुख कारण ही इन मर्यादाओ को छोड़ देने का हैं दुसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इनका पालन न किये जाने का दुष्परिणाम आज देश भुगत रहा हैं| आश्चर्य तो यह हैं कि सभी विषमताओ से छुटकारा चाह रहे हैं किन्तु इन मर्यादाओ का पालन कोई नहीं करना चाहता|
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