शुभासित-25


शुभासि

1. मौन से तात्पर्य वाणी-विहीन हो जाना नहीं हैं। सही समय पर सही बात कहना और बडबोलेपन से बचना भी मौन है।

2. एक व्यक्ति दूसरे के मन की बात जान सकता है, तो केवल सहानुभूति और प्यार से, उम्र और बुद्धि से नहीं।

3. ऊंट फूल-पत्ती को छोड़कर कांटे को ही खाता हैं, बस वैसे ही जैसे कुछ लोग मानव में सद्गुण को छोड़कर, उसके विकारों की खोज करते रहते हैं।

4. हर्ष और आनंद से परिपूर्ण जीवन केवल ज्ञान और विज्ञान के आधार पर संभव है|

5. न्यायदर्शन के मतानुसार दुःख का आंतरिक नाश ही मुक्ति या मोक्ष है। सांख्य मत से तीनों प्रकार के तापों का समूल नाश ही मुक्ति या मोक्ष है। वेदान्त में पूर्ण आत्मज्ञान द्वारा माया-सम्बन्ध से रहित होकर, अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप का बोध प्राप्त करना मोक्ष है। तात्पर्य यह है कि सब प्रकार के सुख-दुःख और मोह से परे हो जाना ही मोक्ष है।

6. “भविष्यसंयोग नहीं, चयन का विषय है। इसके लिए प्रतीक्षारत न रहकर, इसे प्राप्त करने के लिए उस दिशा में प्रयास करना चाहिए।

7. चरित्रवान बनने के लिए वैसा ही प्रयास कीजिये, जैसा सुंदर दिखने के लिए करते हैं।

8. सही दिशा में किया जाने वाले कर्म का मार्ग चाहे जितना भी कष्टसाध्य हो; किन्तु सफलता सदैव सुखदायीं ही होगी।

9. जिसकी संगत ठीक नहीं, कुसंग उसकी नियत बन जाती हैं, फिर उसकी चेतना में समाये षटरिपु दुर्भाग्य का निर्माण कर, उसे अभागा बना देते हैं।

10. मनुष्य बिगड़ता हैं; तो परिस्तिथियों से या पूर्व संस्कारों-वश।

11. मन का उम्र से उतना ही संबंध होता हैं; जितना धर्म का आचरण से, रूपये का ईमानदारी से और रूप का श्रृंगार से।

12. जिस व्यक्ति को धोखा खाने का जितना भय होता हैं, उतना ही वह उदार होने की क्षमता खोता जाता हैं। इसका यह अर्थ नहीं हैं कि एक बार जिसे जान जाये, दुबारा उसके साथ उदार ही बने रहें।

13. जिनकी इन्द्रियाँ नियंत्रित हैं, जिसका अभिमान नष्ट हो गया है और जो आश्रय रहित है; ऐसे की देवता भी सहायता करते हैं।

14. पुरुषार्थी अपने हाथों को ही ईश्वरीय वरदान मानता हैं। वह समय-सगुन और संयोग पर आश्रित नहीं रहता।

15. परिस्थितियों से गिरने वाला व्यक्ति तो संभल सकता हैं; किन्तु संस्कार से गिरने वाले के लिए संभलना बहुत कठिन होता हैं।

16. कोई भी जो स्वयं को प्राकृतिक गतिविधियों से दूर रखता है और उसके संकटों के प्रति असंवेदनशील है, वह विवेकशील नहीं हो सकता|

17. दुनियाँ में अधिकारों के कानून का जन्म, मानवीय संवेदना, उदारता और सत्य के नष्ट हो जाने के कारण ही हुआ हैं।

18. “सुखदोष रहित नहीं होता, इसलिए सुख भोगना हैं; तो उसे उसके दोषों के साथ ही भोगना पडेगा।

19. मनुष्यता के लिए तकनीकी दक्षता ही नही; बल्कि अध्यात्म का जानकार भी होना जरूरी है|

20. सभी बदलाव, जिन्हें हम बहुत चाहते हैं, उनके अपने दुःख-सुख हैं, क्योंकि हम जो कुछ भी पीछे छोड़ते हैं, वो भी तो अपना ही हिस्सा रहे है और जब तक पुराने को छोड़ा न जाये, नये में प्रवेश करना संभव नहीं होता।

21. किसी मंदिर की चीजें चुराना या गलत तरीके से दूसरों की संपत्ति हथियाना भी पाप है।

22. गुरु, माता-पिता, पत्नी या पूर्वजों का अपमान करने वाले को शिवजी कभी क्षमा नहीं करते हैं।

23. नशा करना, दान की हुई चीजें या धन वापस लेना महापाप है। किसी भी प्रकार के अधर्म में भागीदार बनना पाप है।

24. किसी भी स्त्री का अपमान करना पाप है। ध्यान रखें कभी भी गर्भवती या मासिक धर्म के दौरान किसी महिला को बुरा बोलना, अपमान करना महापाप है। ये पाप करने वाले व्यक्ति को कभी भी सुख नहीं मिल पाता है।

25. “माँवर्तमान को सम्हालती हैं और पिताभविष्य को संवारता हैं। यह आदर्श वाक्य ऋषि-मुनियों का हैं। माँ, नदी के समान सतत प्रवाहवान हैं और पिताकिनारे के रुप में उस प्रवाह की रक्षा करते हुए, आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करता हैं। किनारे के कारण ही नदी के अस्तित्व और मर्यादा की मान्यता स्थापित होती हैं।

कोई टिप्पणी नहीं: